महर्षि महामानस के महान सृष्टितत्व
(बांग्ला मे 'महाविश्व सृष्टि-रहस्य उन्मोचन' से बहुत ही संक्षिप्त रूप मे अनुवाद है)
यह विश्व-अस्तित्व ही ईश्वर है। जो आदिसत्ता या परमात्मा (संस्कृत में ब्रह्म) से सृष्टि हुआ था।
यह आदिसत्व ईश्वर नहीं है, और इस जागतिक कर्मकांड में उनकी कोई विशेष भूमिका नहीं है। आदिसत्ता इस विश्व-लीला में एक मूक और छिपे हुए दर्शक की तरह है।
यह आदिसत्व--- परमात्मा, लेकिन पूर्ण नहीं हैं। पूर्णता का मतलब, पूर्ण स्थिर, निश्चल--- निष्क्रिय अवस्था। पूर्णता से कोई सृजन संभव नहीं होता है।
इस स्थिति में वांछित होने के लिए कुछ नहीं है, हासिल करने के लिए भी कुछ नहीं है। उस कारण से कुछ करना भी नहीं है। सृजन का सवाल ही वहां नहीं आता है।
आदिसत्व पूर्ण नहीं है। उसके पास कुछ मांग है, कुछ कमी है। वह नहीं जानता कि वह कौन है, वह क्यों है, और वह कैसे--- कहां से आया है, या वह कहां से उत्पन्न हुआ है। पता नहीं क्या परिणाम हैं। स्वयं को जानने की यह इच्छा ही सृष्टि का मूल कारण है।
अनिवार्य रूप से, स्वयं की इच्छा में खुद को खोना, उसे फिर से प्राप्त करना या खुद की तलाश करना ही इस महा सृजन का रहस्य है।
एक समय, ब्रह्मांड का अस्तित्व या जन्म हुआ है, और यह एक समय फिर से मृत या ध्वंस हो जाएगा।
यह ब्रह्मांड--- महासृष्टि, आदिसत्त्व की इच्छा का परिणाम है। ईश्वर का जन्म एक नवजात शिशु की तरह ही एक बच्चे-दुनिया के रूप में हुआ था। लगभग बेहोश--- एक बच्चे-विश्व का जीवन शुरू हुआ था--- पूर्ण रूप से विकसित होने के लिए।
लगभग अज्ञान-अचेतन स्थिति से पूर्ण चेतना कि लक्ष्य मे--- कर्म-- भोग, दुख---कष्ट, आनंद के माध्यम से ज्ञान और चेतना प्राप्त करने के साथ निरंतर आगे बढ़ना ही उसका नियति है। और यही है जीवन।
माता-पिता की अपूर्ण इच्छाएं बच्चे के माध्यम से पूरी करनेवाले परिकल्पना कि साथ, इन आदिसत्ता ---परमात्मा के इरादों में कई समानताएं हैं।
ईश्वर या ब्रह्मांड के जीवन में कई क्रमिक चरण हैं, यथा--- बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था इत्यादि। बहुत कुछ हमारे जीवन की तरह।
सिर्फ ईश्वर ही नहीं, हम सब एक ही लक्ष्य पर चल हैं। ईश्वर या ब्रह्मांड कि एक अंश के हिसाब से, हम प्रकृति --- परिस्थितियों और घटनाओं के अनुसार कोई आगे और कोई कुछ पीछे चल रहा हैं।
सृष्टि के क्रमिक पर्व (एपिसोड) इस प्रकार हैं:
1) अपने तत्त्व में से आदिसत्व या परमात्मा--- इसके समान एक छोटी इकाई (आभासी अस्तित्व) बनाई।
2) आदिसत्व--- परमात्मा की प्रतिकृति इकाई, आत्म-सम्मोहन या योग-निद्र के माध्यम से अपने ज्ञान और गुण को भूल गई, और अस्फुट चेतना के स्तर पर पहुंच गई।
3) फिर, पहले विस्फोट के माध्यम से--- दो में विभाजित हो कर, कुछ दूरी पर दो विपरीत दुनिया के बीज का रूप ले लिए है।
4) दो विश्व-बीज से दो विश्व सृष्टि हुए है, एक ही समय में दो महान विस्फोटों के माध्यम से। (इस विश्व या दुनिया के अलावा एक और विपरीत दुनिया-अस्तित्व है, एक ईश्वर है, और दूसरे दुनिया को समझने के लिए 'ईश्वरी' कहा जा सकता है। )
फिर, दो बीज से, महा-पौधे की तरह--- दो ब्रह्मांड विकसित होना शुरू कर दिया है, कई क्रियाओं-- प्रतिक्रियाओं और विस्फोटों के माध्यम से (दोनों दुनिया)।
5) बाद में, एक समय, ईश्वर पौधों और जीवों --- जानवरों बनाने के खेल में शामिल हो गए...।
यह संक्षेप में, महान जीवन-यात्रा (विस्तार से जानने के लिए, बांग्ला मे 'महाविश्व सृष्टि रहस्य उन्मोचन' पढ़ा जाना चाहिए) का चित्र है।
इस जीवन-चक्र में कई पर्व हैं, कई गतिविधियां हैं। हम इस महाविश्व रूपी ईश्वर के साथ जितना अधिक आगे बढ़ते हैं, उतना ही हम अज्ञान-अचेतन और मोह से मुक्त हो जाते हैं।
यह संक्षेप में, महान जीवन-यात्रा (विस्तार से जानने के लिए, बांग्ला मे 'महाविश्व सृष्टि रहस्य उन्मोचन' पढ़ा जाना चाहिए) का चित्र है।
इस जीवन-चक्र में कई पर्व हैं, कई गतिविधियां हैं। हम इस महाविश्व रूपी ईश्वर के साथ जितना अधिक आगे बढ़ते हैं, उतना ही हम अज्ञान-अचेतन और मोह से मुक्त हो जाते हैं।